सूफी संतों की रचनाओं में भी झलकती है होली की मस्ती

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लोक स्मृतियों की तहों से ही निकलते हैं त्योहार. वे बुराई से अच्छाई की ओर लौटती स्मृतियां हैं, इन्हीं में एक है होली जो यादों के पानी में ढेर सारे रंग घोलकर सबकुछ भूल जाने का निराला अनुभव बन जाती है.होली को मनाए जाने का इतिहास बहुत पुराना है. आर्यों के समय से. 11वीं सदी में फारस से आए विद्वान अल बरूनी ने भी होली मनाने का जिक्र किया है. कुदरत की करवट के स्वागत का पर्व भी होली है. वसंत की विदाई और फागुन का आगमन. सरसों के पीले फूल, पलाश की लालिमा, गेहूं की बालियां, किसानों के गीत सब मिलकर होली का एक रंगीला रोमान रच देते हैं |

जितना ये प्रकृति का उल्लास पर्व है उतना ही ये, बकौल रघुबीर सहाय ‘एक अद्वितीय सामाजिक मौसम’ भी है. संस्कृतियों और समाजों और संस्कारों की मिलीजुली रंगतें. एक विशुद्ध भारतीय सामाजिक एकजुटता का प्रतीक. जाति, धर्म और संप्रदाय के बंधनों को खोलता. सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो से लेकर बहादुरशाह जफर और नजीर अकबराबादी की रचनाएं होली की खिलंदड़ी, उसके अध्यात्म, उसकी सूफियाना मस्ती और उसके विहंगम सामाजिक फैलाव के बारे में बताती हैं.

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